यदि आज व्यस्थापिका के कार्यों और शक्तियों की आलोचनात्मक परीक्षा की जाए इनमें गिरावट की स्थिति दष्टिगोचर होती है। सबसे पहले जेम्स ब्राइस का ध्यान इस ओर गया और उसने अपनी पुस्तक 'Moderm Democracies' में विधायिका के ह्रास की बात की, लेकिन वह समस्या की तह तक पहुंचने में नाकाम रहा। उसके बाद के०सी० व्हीयर ने अपनी पुस्तक 'Legislature' में वि गायिका के हास की चर्चा फिर से शुरू की। उसने इस पुस्तक में एक अध्याय विधायिकाओं के पतन का जोड़ा। उसने विधायिका के हास का कारण कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि को बताया। रैम्से म्योर ने भी कार्यपालिका की मजबूत स्थिति का परिणाम बताया है। ला पालोम्बरा ने विधायिका के हास का कारण उसकी प्रतिनिध्यात्मकता तथा कार्यपालिका की शक्ति को बढ़ने को माना है। राबर्ट सी० बोन इसे कार्यपालिका तथा विधायिका के सम्बन्धों में आए बदलाव को उत्तरदायी ठहराया है।
आज व्यवस्थापिकाओं के पतन की जो बात चर्चा में है, वह यह है कि आज संसदों का युग लद गया है, नौकरशाही की विजय हो रही है और कार्यपालिका या मन्त्रीमण्डल की तानाशाही स्थापित हो चुकी है। इस चर्चा पर व्हीयर ने अपनी पुस्तक 'Legislature' में अनेक प्रश्न उठाए हैं। उसने लिखा है क्या व्यवस्थापिकाओं की शक्ति में कमी आ गई है, क्या इनकी कार्यदक्षता नहीं रही, क्या इनके प्रति जनता की रुचि तथा सम्मान कम हुआ है; क्या विधायकों के व्यवहार में या व्यवस्थापिकाओं के शिष्टाचार में कमी आई है; क्या यह पतन अन्य सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं के मुकाबले या कार्यपालिका के मुकाबले में हुआ है? व्हीयर का कहना है कि यदि इन बातों को ध्यान में रखकर व्यवस्थापिका के पतन पर विचार किया जाए कोई सर्वमान्य हल नहीं निकाला जा सकता। व्यवस्थापिका के पतन को तो कार्यपालिका की शक्तियों में हुई वृद्धि के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। आज कार्यपालिकाएं ऐसे कार्य करने लगी है जो पहले नहीं किए जाते थे। इसी तरह व्यवस्थापिकाएं भी पहले से अधिक कार्य करने लगी हैं। लेकिन कार्यपालिका के मुकाबले में वे काफी पिछड़ी हुई है। व्यवस्थापिकाओं के पिछड़ने या पतन की तरफ जाने के अनेक कारण हो सकते है :-
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